Thursday, February 25, 2010

क्या पाकिस्तान हमसे ज्यादा काबिल है कि हम बार-बार याचक बनें..?

पाकिस्तान से विदेश सचिव स्तर की वार्ता हुई, जाहिर है विफल ही हुई होगी। पाकिस्तान के साथ हम क्यों बातचीत के लिए आगे बढ़ते हैं। हमारी नीति में ऐसा क्या है? क्या हम ये दिखाना चाहते हैं कि हमारे जैसे सभ्य कोई नहीं है। पाकिस्तान विदेश सचिव कहते हैं कि हमारे यहां मुंबई हमले जैसी कई घटनाएं हुई हैं। इसमें वैसी कोई बात नहीं है। मुशर्रफ आतंकवाद को सबसे बड़ी समस्या बताते हैं। हम तो पाकिस्तान से पूछना चाहते हैं कि तुझे क्या हुआ पाकिस्तान? तुम अपने भीतर छुपे दुश्मनों को क्यों नहीं पहचान रहा? पता चला कि आतंकवादी और कुछ मौकापरस्त ताकते अब पानी बंटवारे के मामले को लेकर बखेड़ा करने की फितरत लिये हुए हैं। बड़ी मुश्किल है भाई। कोई राह ऐसी नहीं दिखती, जहां से समाधान का रास्ता निकले। कश्मीर को लेकर तो ऐसी ठाने हुए हैं कि कभी ये समस्या खत्म होती नहीं दिखती।
याद आता है कि एक बार कश्मीर के दोनों को हिस्सों के लोगों को मिलन को टीवी पर दिखाया जा रहा था। लोग गले मिलकर रोये जा रहे थे। उफ्फ, वे आंसू, वे दुख, वे विलाप सहन नहीं हो रहा था। अंगरेज हमारे पास एक ऐसा नासूर छोड़ गए हैं कि हम रह-रह कर घुटते रहेंगे। मुश्किल यही है कि पाकिस्तान के साथ कैसे निपटा जाए, ये अब तक हमारी सरकार को समझ में नहीं आया है,जबकि पाकिस्तान बार-बार अपनी औकात बता जाता है। इधर बातचीत का प्रस्ताव गया, उधर उसके नेता चिल्लाने लगे, हमने कोई गुनाह नहीं किया और न हम इतने कमजोर हैं। भारत को हमारी बात माननी पड़ी। कहना न होगा कि डायलॉगबाजी में हम हार जाते हैं। हम पाकिस्तान के कुशल वाक् युद्ध के सामने कमजोर हो जाते हैं। हमारे नेताओं के पास एक साल के बाद भी वह डिप्लोमेसी में कारगर हथियार नहीं है, जिसके बल पर पाकिस्तान को सही रास्ते पर लाया जा सके या झुकाया जा सके। बड़ी मुश्किल है। वैसे आनेवाले समय में फिर वार्ता की पेशकश माथा फोड़ने जैसा होगा। क्या पत्थर पर सर पटककर जिंदगी पायी जा सकी है।

No comments:

Post a Comment